कभी हंसी तो कभी आंसू कुछ ऐसी हैं ‘गुडबाय’कि कहानी

मनोरंजन

ऐक्टर:अमिताभ बच्चन,रश्मिका मंदाना,नीना गुप्ता,पावेल गुलाटी,सुनील ग्रोवर,आशीष विद्यार्थी,एली अवराम

डायरेक्टर : विकास बहलश्रेणी:Hindi, Drama, Familyअवधि:2 Hrs 26 Min

गुडबाय का मतलब होता है अलविदा और जब हमारी जिंदगी का कोई बेहद करीबी हमसे अचानक बिना किसी प्लानिंग के गुडबाय कह दे, तो उससे ज्यादा ट्रेजिक क्या हो सकता है? इस ट्रेजेडी को निर्देशक Vikas Bahl ह्यूमर, इमोशंस, सेल्फ रियलाइजेशन और ट्रांसफॉर्मेशन की एक परतदार कहानी के साथ अंदाज में बुनते हैं। आप इसे देखते हुए कभी मुस्कुरा देते हैं, तो कई बार आपकी आंखें नम हो जाती हैं। असल में फिल्म GoodBye का फलसफा इन पंक्तियों से बयान होता है, ‘जीवन अलविदा के बारे में नहीं है बल्कि अलविदा कहने के लिए बहुत सारी अच्छी यादें बनाने के बारे में है।’

 गुडबाय सिर्फ़ एक फ़ैमिली ड्रामा नहीं बल्कि यहां हमारे रीति रिवाज के प्रति सोच और धारणाओं की भी बात बताती हैं जानने के लिए पढ़ें डेल्टा न्यूज़  का रिव्यू।

वैसे ये कई घरों में देखा जाता है लोग मरने के बाद भी अपनी प्लानिंग करके जाते हैं कि उनके जाने की बाद उनका अंतिम संस्कार कैसे होगा पर बात जब नार्मल मिडिल क्लास फॅमिली की हो तो ऐसी कोई प्लानिंग ना कहीं देखी ना कहीं सुनी गई है। गुडबाय देखने के बाद आपके दिमाग  में यें ख़्याल ज़रूर आएगा।

गुडबाय‘ की कहानी
फिल्‍म कहानी की शुरुआत होती है तारा भल्ला की विक्ट्री पार्टी से, जहां वो अपने एक केस को जीतने का जश्न मना रही है। उसके घर चंडीगढ़ से उसके पिता हरीश भल्ल उसे लगातार फोन कर रहे हैं। मगर पार्टी में मस्त तारा फोन कॉल्स को नजरअंदाज कर देती है। अगली सुबह उसे पता चलता है कि उसकी मां गायत्री हार्ट अटैक से चल बसी हैं और उसके पिता इसलिए ही उसे फोन कर रहे थे। तारा गहरे अपराध बोध से घिर जाती है। इस परिवार के अन्य सदस्यों में बड़ा बेटा अंगद और फिरंग बहू डेजी  विदेश में शिफ्ट हो चुके हैं, दूसरा गोद लिया हुआ बेटा भी अब्रॉड में है और एक सबसे छोटा बेटा पर्वतारोहण के लिए गया हुआ है।

अब हरीश और गायत्री के बच्चे किन हालातों में अपनी मां के अंतिम संस्कार में पहुंचते हैं, यहीं से फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है। मगर इस कहानी में गायत्री के अंतिम संस्कार के रीति-रिवाजों के सहारे किरदारों का मानसिक, सामाजिक और आर्थिक हाल बयान किया गया है। जहां एक तरफ मॉडर्न बेटी तारा इन कर्म-कांडों को अंधविश्वास बताती है, तो वहीं पिता हरीश उसे आस्था का नाम देता है, मगर इस आस्था के पीछे जो साइंस और लॉजिक है, जिसके संतुलन स्थापित करने की जिम्‍मेदारी पंडित जी के कंधों पर है।

फ़िल्म के ज़रिए आप एक इमोशनल राइड पर जाएंगे। जहां आप कभी हंसते हैं तो कभी आपके आपके आंसू रुकने का नाम ही नहीं लेते। अगर क्रिटिक के नज़रिए से देखा जाये तो फ़िल्म में कुछ कमियां नज़र ज़रूर आएगी पर कहानी आपको इतनी अपनी सी लगेगी की आप ये ख़ामियों को नज़रअंदाज़ कर देंगे। लंबे समय के बाद फ़ैमिली ड्रामा बड़े पर्दे पर दर्शकों के बीच आयी है जिसका फ़ायदा मेकर्स को मिल सकता है। फ़िल्म के शुरू होने के 15 मिनट बाद ही आप रोने लगते है इसकी ख़ासियत ये है कि इंटेंस सब्जेक्ट होने के बाद भी मेकर्स ने इसे बखूबी से बैलेंस किया है। फ़िल्म मी सभी सिचुएशन इतनी बखूबी से फिट किए गए हैं कि आप कब रोते रोते हंसने लगते हैं वो समझ ही नहीं आता। फ़िल्म के सीक्वेंस बहुत लंबे हैं जिसके वजह से इसका पेस खींचता हुआ सा लगता है। फ़िल्म की एडिटिंग पर भी थोड़ी कमी दिखी पर फ़िल्म का प्लस प्वाइंट ये है की यहां आप किरदारों से ख़ुद को कनेक्ट कर पाते हैं। हमारी ज़िंदगी में कई ऐसे मौक़े रहे हैं जहां हम अपने पैरेंट्स को फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं और जब वो हमारे बीच नहीं होते तो रह जाता है सिर्फ़ एक शब्द “काश” फ़िल्म में एक चीज जो खलती है, वो है तारा (रश्मिका ) का एक्सेंट, रश्मिका ने खुद ही डायलॉग डब किया है, जो कन्विंसिंग नहीं लगते हैं। दावा है कि फिल्म देखने के बाद आप अपनी मां या करीबी को एक बार कॉल जरूर करेंगे।

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